Thursday, January 31, 2013

HURTING OF SENTIMENTS



1. Spontaneous mass uprising like that after Delhi rape is the true sign of hurting of sentiments of people. Most of the other claims are in fact incidents of scheming individuals or groups who, for their ulterior motives, incite and mobilize people by insinuating that there sentiments have been hurt. Unfortunately politicians generally act inefficiently in the first instance and, ironically, they act efficiently in the second instance.

2. Some pertinent questions about ‘hurt sentiments’ that we should ask ourselves—

a. In a secular polity where is the place for changing secular framework of law on the basis of ‘hurting of religious sentiments’?

b. Is making ‘hurt sentiments’ the criteria for framing or amending or implementing law justified? If yes, would it not be like opening Pandora’s box?

c. Truth is said to be bitter, therefore, taking the path of truth will certainly hurt sentiments of some individuals or groups. So, in order not to hurt sentiments of people should truth, entailing justice, be sacrificed?

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Friday, January 25, 2013

हमारे जागरूक प्रतिनिधि?!



आज़ादी के बाद से देश में एक अनोखे समाजवाद का प्रयोग होता आ रहा है अथवा समाजवाद का एक अनोखा प्रयोग हो रहा है, कुछ समझ नहीं पड़ता। राजाओं के उन्मूलन, राष्ट्रीयकरण, आर्थिक उदारीकरण, औद्योगिक विकास आदि अनेक साहसिक कदम कभी के उठाये जा चुके हैं और जनता को आश्वस्त सा कर दिया गया है कि सचमुच समाजवाद की ओर बहुत प्रगति हो चुकी है। प्रगति की संज्ञा से सुशोभित इन सभी व्यवस्थाओं के साथ-साथ अवनति की एक धारा भी बह रही है। ऐसी बातें भी बार-बार सामने आती रहती हैं जिनसे अनायास ही ऐसा लगता है कि यह समाजवाद जनता के हित में उतना नहीं है जितना एक विशेष तबके तथा नेताओं (जनता के प्रतिनिधियों) के हित में। चाहे तर्क करने वाले यह क्यों न कहें कि जनता की उपलब्धियों का मापदण्ड उसके प्रतिनिधियों की उपलब्धियों से ही तो होता है।

ढूंढे-खोजे बिना ही ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे कि जनता के नाम पर बांटी जाने वाली सुविधायें चंद सामर्थ्य-सम्पन्न व्यक्तियों व उनके चहेतों के उपयोग में ही अधिक आ रही हैं। अतुलित अर्थ लाभ और सामर्थ्य लाभ को तो छोड दें, क्योंकि वह तो अदने आदमी की पहुंच के बाहर है, स्कूल-कॉलेजों में प्रवेश पाने से लेकर सिनेमा के टिकिट, बिना लाइन में खडे़ हुवे पाने जैसी गौण बातों तक अनेकों प्राथमिकताएं अदने आदमी के प्रतिनिधि ही नहीं उनके नाते-रिश्तेदार भी बिना हिचके पाते आये हैं। चाहे वे साधारण परिस्थितियों में उस योग्य हों, अथवा नहीं। आश्चर्य है कि सरकार या राजनीतिक दल उन्हें अपने विशेषाधिकारों तथा सुविधाओं के उपयोग में सावधानी बरतने को कहने की औपचारिकता मात्र निभाते हैं। इसमें संदेह नहीं कि जनता के प्रतिनिधियों को जनता के काम में सुविधा के लिये कुछ विशेषाधिकार आवश्यक हैं, पर क्या वे अधिकार उनके निजी कार्यों के लिये भी हैं तथा उनके परिचितों व सम्बन्धियों के लिये भी। क्या यह समाजवाद है? या इसे भ्रष्टाचारवाद कहें? स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि अब तो वे जनता की आवाज बुलन्द करना भूलते जा रहे हैं। अब तो पुराने राजाओं और जागीरदारों तथा आज के लोकतांत्रिक शासकों में क्या कोई अन्तर रह गया है?

अजीब कुंठित व्यक्तित्व हैं हमारे प्रतिनिधियों के कि लोक सभा में, जहां देश और जनता के महत्वपूर्ण मसलों पर विचार विमर्ष करते समय बोलने सुनने वालों की कमी पड़ जाती है या फिर दलगत विरोध बाधा बन जाते हैं किन्तु वेतन व सुविधाओं जैसे व्यक्तिगत मामलों पर निर्णय की मांग पर सभी एक स्वर में कूक उठते हैं। देश के किस अस्पताल में कोई मरीज उपयुक्त उपचार के अभाव में मर गया इसकी किसी को चिन्ता नहीं होती, पर एक नेता के सम्बन्धी की खरोंच पर टिंचर लगाने में तनिक विलम्ब होजाने पर सारा व्यवस्थातंत्र तिलमिला उठता है। एक तरफ तो कन्या-भ्रूण हत्या व बलात्कार की घटनाएं कबसे कितनी व्याप्त हैं किसी से छुपा नहीं है पर नेताओं की भावनाओं को झकझोरने के लिए राजधानी की पाविक घटना की आवश्यकता पडी। दूसरी ओर किसी नेता की शान में कोई तनिक सी भी गुस्ताख़ी हो जाए तो उसके दल के प्रत्येक सदस्य की भावना को इतनी ठेस पहुंच जाती है कि वह अपना आपा खो देता है।

जब सारे देश में कठिन परिस्थितियां व्याप्त हों तब जनप्रतिनिधियों का महज इसलिये शोर मचाना, कि उसकी जमात के किसी व्यक्ति को एक बार वही कुछ मिला जो देश के करोड़ों व्यक्तियों को रोज मिलता है, कहां तक उचित है। उन्हें आवाज उठानी ही है तो सारे देश के लिये आवाज उठायें। जनता के हित में दी गई सुविधाओं का अपने हित में उपयोग करना ही क्या सही प्रतिनिधित्व है जनता का? यदि यही नमूना है हमारे समाजवाद के जागरूक प्रतिनिधियों का तब तो हो चुका देश का भला?
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Wednesday, January 9, 2013

Why not make dereliction of duty an offence?




In the wake of the Delhi rape case the demand for effective deterrent punishment is being strongly pursued. A tenacious follow up is essential for this. However, there are chances that all the changes in laws may prove to be ineffective in face of the somnambulist functioning of the bureaucracy and corrupt nexus of politics and administration. There is hardly any need of evidence for this sad state of affairs; the all pervasive decline is proof enough.

In these conditions why not declare dereliction of duty to be a punishable offence? The legal luminaries can formulate the whole range of punishments with simple but effective procedures. There are chances that heavy pecuniary punishment will bring about considerable improvement provided it starts at the top and then comes down.





Friday, January 4, 2013

बलात्कार के लिए कठोर दंड?




बलात्कार जैसे घिनौने अपराध के लिए दंड विधान को कठोर शीघ्र प्रभावी करने से जन सामान्य में ऐसे जघन्य अपराध में लिप्त होने की प्रवृत्ति पर अवश्य ही भय का अंकुश लगेगा और अपराधी वृत्ति वाले लोगों की संख्या में कुछ कमी आएगी। पर यह समस्या की सतह मात्र है। समस्या को नियंत्रित करने की दिशा में केवल यही काफी नहीं है। उसके लिए तो समस्या की जड तक पहुंचना होगा और वहाँ इलाज के उपाय खोज कर उन्हें ईमानदारी से लागू करना होगा। नारी के अधिकारों का आदर करना पुनः सीखना होगा। 

बढते अपराधों की जड में है समाज में व्यापक रूप से बढ रही नैतिक मूल्यों की गिरावट। बलात्कार जैसे क्रूर अपराधों की निरंतर बढती संख्या और चारों ओर फैली उच्छृंखलता इस संस्कारहीनता का साक्ष्य है। नैतिक मूल्यों की इस गिरावट को प्रश्रय मिलता है समाज के हर क्षेत्र में पैर चुकी राजनीतिक सोच का। जहाँ सब्जी किसी दुकान से इसलिए नहीं खरीदी जाती कि उसका मालिक विरोधी पार्टी का है, जहाँ प्रकृतिक रंगों का सहज गुण गौण और राजनैतिक जुडाव महत्त्वपूर्ण बन जाता है और जहाँ शब्दों के मूल अर्थ को छोड उनके दलगत अर्थों को अधिक वज़न दिया जाता है, वहाँ राजनीति कितने प्रभावी ढंग से सामाजिक सोच को बीमार कर चुकी है, समझना कठिन नहीं। ऐसी स्थिति में अपराधी को उसके अपराध की जघन्यता के अनुपात में दंड नहीं मिलता, उसे तो उसकी राजनीतिक कटिबद्धता के आधार पर दंड मिलता है। ऐसी व्यवस्था में अंततः अपराधी को प्रोत्साहन मिलता है, निर्दोष हतोत्साहित हो अपराध की ओर मुडने लगता है और अपराधियों की संख्या बढती जाती है। 

क्या इस स्थिति को बदलने के लिए नैतिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा पर तत्काल विशेष ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए? क्या हमें यह चिंता नहीं होनी चाहिए कि हमारी शिक्षा प्रणाली श्रेष्ठतम वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर प्रबंधक तो बना रही है पर श्रेष्ठ ईमानदार नागरिक नहीं बना पा रही है\ आख़िर क्यों\
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